Friday, April 13, 2012

ओस जैसी ज़िन्दगी













हरे झुकते पत्तों पे सरसराती सी फिसलन,
घास पे हीरे के जैसे हो रखी,
जैसे कोई नयी नवेली दुल्हन।
अंततः रिसते हुए जाती मिटटी के आगोश,
क्यूँ इतनी छोटी जिन्दगी होती तेरी ओस।

तेरा अस्तित्व तेरा वजूद तब दिखता,
जब बूंदों से होती ये ज़मीन पावन।
बिन बारिश न  है तू, जब  होती,
तो पल  में सिमटता तेरा जीवन।
अंततः रिसते हुए जाती मिटटी के आगोश,
क्यूँ इतनी छोटी जिन्दगी होती तेरी ओस।

जिंदगी चाहे छोटी हो,
पर हंसी हरपल  बनी रहे।
कुछ ओस से ही सिख ले,
कि चमक हरपल सजी रहे।
अंततः तुझे जाना है,
रिसते हुए मिटटी के आगोश।
फिर भी जिन्दगी जीना,
तू सिखला जाती ओस।