Wednesday, September 16, 2009

सरहद पार-कैदी की पुकार

भारत के सरहद पार,
सलाखों के पीछे से कैदी की पुकार।
हे! भाग्य विधाता,
क्युं नहीं मेरे भाग्य जगाता।
रोज रात को सोता जब मैं,
रो देता हूँ अक्सर तब मैं।
आंखों से गिरते आँसू की धार,
याद दिलाती है माँ के आँचल का प्यार।
नव प्रभात आता है जब-जब,
आतें है मन में विचार तब-तब।
क्या कोई ऐसी सुबह नहीं हो सकती,
कि मुझे आजादी दिला सकती।
या कोई पवन का झोंका संदेश लिए,
आता किसी शाम।
दिल में होती बेइन्तहा खुशी,
होंठों पर होता पैगाम।
सोच-सोच मन कुंठित होता,
नींद बिना रातों को सोता।
देशों को सरहद ने बांटा,
दिल को क्युं नफरत ने काटा।

5 comments:

  1. bahut achha tha.......
    tum aur achha likh sakte ho...
    happy writing

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  2. waah waah...bahut hi achha likha hai tumne...congratulations..
    waise to tumhari kavita ki sari panktiyan hi achhi hain lekin last ki 2 lines kafi touching hain...shabas..keep writing..& best of luck..

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  3. अभिनव जी...बहुत करुण रचना हैं...घायल की गति घायल जाने..हम तो सरहदों के पार कैद उन कैदियों की पीड़ा का बस एक अंश समझ सकते हैं. लेकिन एक कुशल कवि की तरह आपने अपने शब्दों के माध्यम से उनकी वेदना के साथ पूरा न्याय किया हैं..,

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  4. अभिनव जी...बहुत करुण रचना हैं...घायल की गति घायल जाने..हम तो सरहदों के पार कैद उन कैदियों की पीड़ा का बस एक अंश समझ सकते हैं. लेकिन एक कुशल कवि की तरह आपने अपने शब्दों के माध्यम से उनकी वेदना के साथ पूरा न्याय किया हैं..,

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  5. स्वाति जी...आपको धन्यवाद जो आपने कविता को इतना सराहा और यह मेरी एक छोटी सी कोशिश थी की मै सरहद पार कैदियों की स्थिति को अपने कविता के माध्यम से चित्रण कर सकुं|

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