Sunday, January 26, 2014

अभिव्यक्ति की आज़ादी



आज का गणतंत्र
ये आज की सदी
है जुबां पर लगाम 
या अभिव्यक्ति की आज़ादी 

है सोच का प्रवाह 
या सोच है कहीं रुकी 
जो रोक दे बढ़ने से पहले 
है इसी में तेरा निज़ाम 
है जुबां पर लगाम
या अभिव्यक्ति की आज़ादी 

Thursday, April 18, 2013

कौन जिम्मेदार....?














जब संवेदना वेदना बन भीख मांगती रही,
जब नज़रें राहगीरों को उम्मीद बन ताकती रही।
जब जिंदगी ने भी हार कर कह दिया अलविदा,
अब किस पल का करोगे इंतज़ार,
कि कौन है जिम्मेदार,
हम, तुम या फिर सरकार।

ऐसा क्युं महसूस होता,
की क्या है ये भावनाएँ ?
ऐसा क्यूँ अहसास होता,
की मृत हो चुकी है संवेदनाएँ।
"सोच बदलो देश बदलेगा",
ऐसे सोच पनपने के नहीं दिखते आसार।
अब किस पल का करोगे इंतज़ार,
कि कौन है जिम्मेदार,
हम, तुम या फिर सरकार।

कौन है दोषी, कौन निर्दोष,
क्या यही सोचते रहेंगे हम,
कब आएगा हमे होश ?
जब इंसान ही इंसान की करे अवहेलना,
फिर कुछ कहना ही है बेकार,
अब किस पल का करोगे इंतज़ार,
कि कौन है जिम्मेदार,
हम, तुम या फिर सरकार।

Tuesday, March 12, 2013

सुदृढ़ समाज - सुदृढ़ भारत

अस्मिता थिएटर ग्रुप किसी पहचान की मोहताज नहीं। पिछले 20 वर्षों से यह समाज के लिए पथ प्रदर्शक की भुमिका निभा रहा है और अपने सभी नाटकों के मंचन के जरिए हर उस सन्देश को लोगों में व्याप्त करने की कोशिश कर रहा है जिससे की मज़बूत समाज और सुदृढ़ भारत का निर्माण हो। अस्मिता के इस अथक प्रयास पर कुछ पंक्तियाँ पेश करता हूँ।


एक सोच थी, इक शुरुआत हो
जागरूकता समाज में व्याप्त हो।
हनन न हो हमारे अधिकारों का,
हर किसी का सम्मान हो।
कमियों को किनारा कर अथक प्रयास से,
सुदृढ़ भारत का निर्माण हो।



अकेली ऊँगली न रहके मुट्ठी बनो,
अनेकता में एकता के रंग में रंगों। 
दस्तक हो चाहे किसी और का द्वार हो, 
यह सुन भवें तुम्हारी तन जाये,
जैसे की अपने भाई पर हुआ एक प्रहार हो।

फिर सोचना क्या, तेरा कदम 
बुराइयों के खिलाफ एक फरमान हो।
हनन न हो हमारे अधिकारों का,
हर किसी का सम्मान हो।
कमियों को किनारा कर अथक प्रयास से,
सुदृढ़ भारत का निर्माण हो।




एक सोच थी, इक शुरुआत हो
जागरूकता हमारे समाज में व्याप्त हो।

Friday, April 13, 2012

ओस जैसी ज़िन्दगी













हरे झुकते पत्तों पे सरसराती सी फिसलन,
घास पे हीरे के जैसे हो रखी,
जैसे कोई नयी नवेली दुल्हन।
अंततः रिसते हुए जाती मिटटी के आगोश,
क्यूँ इतनी छोटी जिन्दगी होती तेरी ओस।

तेरा अस्तित्व तेरा वजूद तब दिखता,
जब बूंदों से होती ये ज़मीन पावन।
बिन बारिश न  है तू, जब  होती,
तो पल  में सिमटता तेरा जीवन।
अंततः रिसते हुए जाती मिटटी के आगोश,
क्यूँ इतनी छोटी जिन्दगी होती तेरी ओस।

जिंदगी चाहे छोटी हो,
पर हंसी हरपल  बनी रहे।
कुछ ओस से ही सिख ले,
कि चमक हरपल सजी रहे।
अंततः तुझे जाना है,
रिसते हुए मिटटी के आगोश।
फिर भी जिन्दगी जीना,
तू सिखला जाती ओस।

Saturday, September 17, 2011

बीते पल


अचानक क्यूँ ऐसा मन को हुआ,
क्यूँ ना पुरानी यादों को टटोला जाये|
दोस्तों की पुरानी फोटो और,
स्कूल की पुरानी पुस्तकों को खोला जाये|

यह सब कर,
एक अपनापन सा जगने लगा|
ऐसा पहले भी हुआ है,
न जाने क्यूँ लगने लगा|

सच कहते हैं,
जब कुछ बीत जाये तो,
एक कमी सी लगती है|
तब उसकी कद्र नहीं की,
यह सोच,
आँखों में नमी सी लगती है|

वक़्त हर पल आगे ही क्यूँ जाता है,
सुनहरे बीते पलों को,
फिर से क्यूँ नहीं दिखाता है|
काश वक्त अंगड़ाई लेना सिख ले,
ये सोच,
जिंदगी हसीं सी लगती है|

सच कहते हैं,
जब कुछ बीत जाये तो,
एक कमी सी लगती है|
तब उसकी कद्र नहीं की,
यह सोच,
आँखों में नमी सी लगती है|

Tuesday, May 3, 2011

किसान-एक संवेदनशील जीवन

ये कैसा जीवन,
जुबां पे सिर्फ आह है।
क्या करें पता नहीं,
क्युं नहीं मिलती कोई राह है।
बंज़र भूमि, बंज़र जीवन,
ज़िन्दगी भी तबाह है।
ये कैसा जीवन,
जुबां पे सिर्फ आह है।
क्या करें पता नहीं,
क्युं नहीं मिलती कोई राह है।

कैसे हो बच्चों की शिक्षा पुरी,
कैसे पुरी हो परिवार की अभिलाषा अधुरी।
खुद मुक्त भी नहीं होती यह जीवन,
मुक्त हो जाए तो होती हमारी चाह है।
ये कैसा जीवन,
जुबां पे सिर्फ आह है।
क्या करें पता नहीं,
क्युं नहीं मिलती कोई राह है।

कोई नेता कहीं अपनी मुर्ति बनवाए,
कोई खेलों से करोड़ों कमाए।
अश्क भी कोई समझ ले,
क्युं नहीं किसी को हमारी परवाह है।
ये कैसा जीवन,
जुबां पे सिर्फ आह है।
क्या करें पता नहीं,
क्युं नहीं मिलती कोई राह है।

Wednesday, February 23, 2011

छात्र संघ

छात्र संघ! आखिर है क्या ये छात्र संघ? क्या यह जिम्मेदार युवाओं का समूह है या फिर दबंग छात्रों का जमावरा जो देश के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझते| दिन प्रति दिन यह काफी जटिल प्रश्न बनते जा रहा है| लोकतंत्र के हर वर्ग के लोगों की छात्र संघ के प्रति अपनी एक मानसिकता है या कह सकते है एक परिभाषा है|

मेरा यह मानना है की शायद सरकार छात्र संघ की शक्ति से खौफ खाती है और समाज छात्र संघ को छात्रों का अपराधीकरण समझती है| इसकी छवि दिन प्रति दिन समाज के हर वर्ग में बिगरती जा रही है और लोगों के मन में एक असत्य मानसिकता घर कर रही है|

प्रथम हम सरकार की बात करते हैं| आज कल राजनीतिक पार्टियाँ विश्वविद्यालयों में घुसकर कुछ छात्रों को भोग-विलास से सम्बंधित प्रलोभन दे कर एक गुट का निर्माण करते हैं जिन्हें स्टुडेंट विंग ऑफ़ ऐबीसी पार्टी का नाम दिया जाता है| इससे छात्रों का विकास नहीं बल्कि विनाश होता है| छात्र हमेशा प्रलोभित वस्तु की वजह से नेताओं के पंजो तले दबे रह जाते हैं और अपराधिक कार्यों से भी संलग्न होने लगते हैं और उन छात्र नेताओं का विकास नहीं हो पाता जिनमें शिक्षा, नेतृत्व और समाज सेवा के गुण हो अर्थात जो सर्वगुण संपन्न हो| छात्रों के इसी रूप को देखकर इनकी सामाजिक छवि बिगरती जा रही है|

मगर छात्र राजनीती का एक दूसरा पहलु यह भी है की लाखों छात्रों में से एक ऐसा छात्र भी होता है जो अपने अथक प्रयास और परिश्रम पूर्ण कार्यों से समाज के नज़र में अपनी एक ऐसी छवि बनाने में सफल होता है जिसे समाज भी स्वीकार करती है पर ये नेता अक्सर किसी न किसी राजनितिक साजिश के शिकार हो जाते है|

पर अब वक्त आ गया है की हम धर्म और जाति से उठकर इनके अस्तित्व को इतना मज़बूत करें की इन्हें कोई साजिश का झोंका छु भी न पाए| ऐसे नेता के निर्माण का अर्थ है समाज का निर्माण और समाज के निर्माण का अर्थ है देश का निर्माण|